मात्स्यिकी एवं मत्स्यन समुदाय की महिलाएं व्यापक रूप से समुदाय के कल्याण के लिए कर्मठ होती हैं. उनके योगदान अदृश्य और अनपेक्षित होने पर भी वे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. केरल में समुद्री मात्स्यिकी की संग्रहणोत्तर गतिविधियों का 50 प्रतिशत महिलाओं का योगदान है. केरल में 26 दिसंबर, 2004 को सूनामी द्वारा अधिकांश तटीय गॉंव प्रभावित हो गए हैं. अधिकांश तट निवास लोग इस व्यापक दुर्घटना से ग्रसित हुए. इन ग्रसित लोगों को राहत और पुनर्वास प्रदान करने हेतु मात्स्यिकी विभाग, केरल द्वारा मछुआरिन सहायता समूह (एस ए एफ) के अंदर ‘’तीरामैत्री’’ नामक बहुविध कार्यक्रम कार्यान्वित किए गए हैं. एस ए एफ मछआरिनों को अपने व्यवसाय विकास की कुशलता बढ़ाने, संपदा उपयोगिता प्रबंधन, निष्पादन सुधार, नेटवर्किंग और विपणन में प्रशिक्षण देता है. तीरामैत्री के कार्यक्रम मछुआरिनों को स्वयं सहायता समूहों द्वारा आर्थिक एवं सामाजिक उन्नयन में भी मदद देते हैं. सूनामी पुनर्वास कार्यक्रमों के भाग के रूप में प्रारंभ में बनाए गए कुल 2500 माइक्रो एन्टरप्राइस ग्रुपों में अब सिर्फ 1000 ग्रुप कार्यरत हैं. करीब 500 ग्रुपों ने किसी कारणोंसे अपनी कार्यविधियॉं बंद की. वर्तमान अध्ययन में केरल के एस ए एफ ग्रुपों के गैर-निष्पादन, विशेषतः तकनीकी, आर्थिक, संस्थागत और सामाजिक प्रभावों के करण पर प्रकाश डालता है. अध्ययन में, माइक्रो एन्टरप्राइस इकाइयों की निष्क्रियता में हितधारकों की भूमिका भी व्यक्त की जाती है. इन ग्रुपों के सुधार/ सशक्तीकरण/ पुनर्गठन के लिए आवश्यक उपायों का विकास करना और इस तरह के सक्रिय ग्रुप की अतिसंवेदनशीलता को पार करने के लिए नवोन्मेषी सुझाव देना अध्ययन का लक्ष्य है.
वर्तमान अध्ययन में पाइलोरिक सीका गणना प्रणाली और डी एन ए बार कोडिंग जैसे आकारमितीय तथा मेरिस्टिक विशेषताओं जैसे विभिन्न तरीकों के प्रयोग से प्रजाति की पहचार और पुष्टि पर सूचना दी जाती है. विशाखपट्टणम और पारदीप में अवतरण की गयी प्रजातियों के आकारमितीय तथा मेरिस्टिक विशेषताओं से यह व्यक्त होता है कि ये इससे पहले रिपोर्ट की गयी ई.कोइओइडस के करीब निकट हैं और ई.टॉविना से स्पष्ट रूप से अलग हैं. डी एन ए बार कोडिंग के उपयोग से किए गए आण्विक अध्ययन से भी यह व्यक्त हुआ कि ई.कोइओइडस के साथ अधिक समानता और ई.टॉविना के साथ कम समानता है. निष्कर्ष रूप से यह बताया जा सकता है कि भारत के उत्तर-पूर्व तट से प्राप्त यह विशेष ग्रूपर प्रजाति ई.कोइओइडस है और ई.टॉविना नहीं है.
भारतीय तारली भारत के समुद्रों की वाणिज्यिक तथा आवासीय तौर पर प्रमुख वेलापवर्ती मछली है और इस प्रजाति की स्टॉक की जटिलता और अंतरा-विशिष्ट विविधता पर कई रिपोर्ट होने पर भी अटलान्टिक तथा पसफिक महासमुद्रों की अपेक्षा इस के आनुवंशिक अध्ययन पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है. अतः पिछले 2 वर्ष (2013-2015) के दौरान भारतीय तट के आठ स्थानों और ओमान खाड़ी से संग्रहित कुल 768 नमूनों में माइक्रोसाटलाइट मार्कर के प्रयोग से भारतीय तारली सारडिनेल्ला लोंगिसेप्स की आनुवंशिक स्टॉक संरचना की जांच की गयी. छः पोलीमोर्फिक माइक्रोसाटलाइट मार्करों ने ओमान और भारतीय तट रेखा के बीच की जीव संख्या में उच्चतम एफ एस टी मूल्य (0.055) के साथ आनुवंशिक विविधता दिखायी. भारतीय तट रेखा में मुम्बई और मांगलूर के बीच दूसरा उप विभाग क्षेत्र की पहचान की गयी (एफ एस टी मूल्य 0.047), जहॉं इन आवासीय क्षेत्रों के बीच दो शक्त बारियरों की उपस्थिति के साथ बारियर विश्लेषण की पुष्टि की गयी. ओमान की खाड़ी, पश्चिम हिन्द महासागर और पूर्व हिन्द महासागर (बंगाल उपसागर) के बीच महासागरीय और पर्यावरणीय विशेषताओं में स्पष्ट रूप से विभिन्नता देखी गयी, जो प्रभावकारी संवितरण तथा जीन फ्लो में बाधा का कारण होगा जिसके फलस्वरूप आनुवंशिक विभिन्नता हुई. कालिकट, कोल्लम, ट्रिवेन्ड्रम, चेन्नई और विशाखपट्टणम से संग्रहित नमूनों में मिश्रित जीनोटाइप दिखाए जाने पर भी बायएशियन विश्लेषण से कुछ क्षेत्रों में अलग जीवसंख्या की उपस्थिति पायी गयी और इस से भी प्रचलित नमूना प्रतिरूपण उपयों और सशक्त अंककों के उपयोग से इसकी पुष्टि की जानी चाहिए. वर्तमान अध्ययन से भारतीय तारली जीवसंख्या, जलवायु परिवर्तन और हिन्द महासागर के आवासीय बदलाव के परिवेश में इस प्रमुख मछली का लचीलापन कायम करने हेतु इसका परिरक्षण करना आवश्यक है, की जैव जटिलता और अंतरा-विशिष्ट विविधता पर प्रकाश डाला जाता है.
वर्तमान जमाने में संवेदनशील तटीय पर्यावरण में मानवीय गतिविधियॉं अधिक होने और भारत के तटीय प्रबंधन में उल्लेखनीय स्ट्रेस के प्रसंग में अतिविदोहन से तटीय आंचलों को संरक्षित करने के संबंध में वैश्विक ध्यान आकर्षित किया जा रहा है. कई अध्ययनों से पहले ही व्यक्त हुआ है कि दूर संवेदन प्रणाली (आर एस) और जियोग्राफिक सूचना प्रणाली (जी आइ एस) मिश्रित हैं और किसी भी प्रकार की सूचना का शास्त्रीय तौर पर स्टोरिंग, संरचता एवं विश्लेषण के लिए विकसित निर्णय समर्थन प्रणाली है. वर्तमान लेख में प्राकृतिक संपदाओं के परिरक्षण और भारत में सुव्यवस्थित तटीय क्षेत्र बनाए रखने के बारे में प्रकाश डाला जाता है. इसके अतिरिक्त यह विवरण भी दिया जाता है कि तटीय क्षेत्रों में विभिन्न गतिविधियों की योजना बनाने की निगरानी और परिव्यय के लिए किस तरह एक निर्णय समर्थन प्रणाली बनायी जा सकती है. यहॉं, भारत में टिकाऊ स्तर पर तटीय क्षेत्रों की प्राकृतिक संपदाओं की सूक्ष्म एवं स्थूल रूप से सूचना देने के लिए जी आइ एस प्रौद्योगिकी का प्रयोग किया गया है. अध्ययन क्षेत्र के मानचित्रण, निगरानी और सूचीकरण के लिए ArcMap और ArcScene के दो बुनियादी एवं शक्त धरातल, ArcGIS सोफ्टवेयर के दो शक्त धरातलों का प्रयोग किया गया है. जियोग्राफिकल संदर्भ, क्षेत्रों के प्रोजेक्टिंग और रूप रेखा लाइन बनाने के लिए Arcटूल बक्स के टूल्स जैसे 3D अनालिस्ट, स्पाटियल अनालिस्ट, बहुआयामी टूल्स आदि की सहायता से और संबंधित तरीकों जैसे रास्टर इन्टरपोलेशन, रास्टर सरफस, एक्स्ट्रैक्शन किए गए हैं.
माइटोकोन्ट्रियल डी एन ए मार्कर के उपयोग से भारतीय महाद्वीपीय समुद्रों से पाई जाने वाली बांगडा रास्ट्रेलिगर कानागुर्टा की आनुवंशिक जीव संख्या संरचना और ऐतिहासिक जनसांख्यिकी पर समझने का प्रयास किया गया. भारत के तटों के 10 विभिन्न स्थानों से संग्रहित भारतीय बांगडों से माइटोकोन्ट्रियल कन्ट्रोल रीजियन के 241 अनुक्रमों और माइटोकोन्ट्रियल ATPase जीन रीजियन के 271 अनुक्रमों का प्रवर्धन और विश्लेषण किया गया, जिसके परिणामस्वरूप क्रमशः 123 और 155 हालोटाइप निकाले गए. इसके अतिरिक्त विश्लेषण के लिए एन सी बी आइ से डाउनलॉड किए गए थायलान्ड के नमूनों के कन्ट्रोल रीजियन अनुक्रमों का उपयोग किया गया. कन्ट्रोल रीजियन और ATPase जीन दोनों का विश्लेषण किए जाने पर भारत, पोर्टब्लेयर और थायलान्ड के नमूनों में आनुवंशिक विभिन्नता (0.38; P < 0.001 का �ST मूल्य ) देखी गयी. लेकिन भारत के नमूनों का विश्लेषण करने पर �ST मूल्य महत्वपूर्ण नहीं थे. भारत मुख्य भूमि, पोर्टब्लेयर और थायलान्ड के बीच के महासागरीय एवं पर्यावरणीय अवरोध से कम डिंभकीय संवितरण और प्रतिबंधित जीव संख्या मिश्रण होने की वजह से आनुवंशिक विभिन्नता सूक्ष्म रूप से प्रकट थी. भारत की जीवसंख्या में आनुवंशिक सबडिविशन के अभाव से पर्याप्त जीन फ्लो और भारतीय समुद्रों के साथ मिश्रण का संकेत मिलता है. बायएशियन स्काइलाइन प्लोटों ने लगभग 10000 वर्षों पहले हुए अंतिम हिमनदों या प्रथम होलोसीन के दौरान संपन्न जीवसंख्या विस्तार पर प्रकाश डाला है. भारतीय महाद्वीप में अंतिम हिमनदों या प्रथम होलोसीन के पश्चात हुई मानसून की गहनता के फलस्वरूप उष्णकटिबंधीय हिन्द महासागर की उत्पादकता में वृद्धि हुई और परिणामस्वरूप बांगड़े की जीवसंख्या में भी विस्तार हुआ. भारतीय बांगड़े की जीवसंख्या की अंतरा-विशिष्ट विविधता तथा जैव-जटिलता के परिरक्षण हेतु क्षेत्रवार की तैयारियॉं की जा सकती हैं.
लक्षद्वीप द्वीप समूह के निकट दक्षिण अरब सागर (09°54′32″N; 73°39′12″E, 11°16′18″N; 72°51′09″E, और 10°48′08″N; 72°41′11″ E) से 1200 से 2340 मी. के निचली गहराई परास से 200 मी. के आकार वाले खुले जाल द्वारा बाथीपेलाजिक स्क्विड, बाथीट्यूथिस बासिडिफेरा को पकड़ा गया. आकारमितीय एवं आण्विक विश्लेषण यहॉं प्रस्तुत किया जाता है. दक्षिणपूर्व अरब सागर से इस प्रजाति की पहली उपस्थिति की रिपोर्ट है और आण्विक स्तर पर पहली बार विश्लेषण किया जाता है. इससे पहले की गयी रिपोर्ट की अपेक्षा इस बार अप्रैल 2015 से जनवरी 2016 के बीच गरम (15.2 से 15.6 °C) और उथले समुद्र से नमूनों को संग्रहित किया गया. प्रजाति के स्टाटोलिथ में वृद्धि पायी गयी. नमूनों की स्टाटोलिथ सूक्ष्म संरचना से यह व्यक्त हुआ कि बाथीट्यूथिस बासिडिफेरा धीरे से बढ़ने वाली स्क्विड है और इसकी वृद्धि दर 0.12 से 0.20 मि.मी./ दिन है. अरब सागर में इस विरल स्क्विड की उपस्थिति भारत की शीर्षपाद जीवजातों की ओर अतिरिक्त योगदान है और गहरे समुद्र के असाधारण जीवजातों के बयोजियोग्राफिक जानकारी प्रदान करने लायक है.